Tulasidas ke Dohe/PUC-1st year/Sahitya vaibhav /Karnataka state board/ Summary/ Question & Answer ( तुलसीदास के दोहे सरल भावार्थ )
तुलसीदास के दोहे
तुलसीदास
कवि परिचय :
* तुलसीदास का जन्म सन 1532 में हुआ।
* सगुण भक्तिधारा में राम भक्तिधारा के संत कवि।
* पिता का नाम आत्माराम दुबे
* माता का नाम हुलसी
* गुरु का नाम नरहरिदास
* तुलसीदास ने अवधि और ब्रज भाषा में रचनाएँ की।
* रामचरित मानस महाकाव्य 2 वर्ष 6 महीने 26 दिन में पूरा किया।
* मृत्यु सन 1623 में हुई।
प्रमुख रचनाएँ :
* रामचरित मानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, जानकी मंगल और दोहावली।
दोहे और भावार्थ :
1. एक भरोसो, एक बल, एक आस, विश्वास।
स्वाति-सलिल रघुनाथ-जस, चातक तुलसीदास॥१॥
भावार्थ : तुलसीदास जी उपर्युक्त दोहे के माध्यम से कहते हैं कि वे एक ही प्रभु पर भरोसा करते हैं, वे एक ही शक्ति को मानते हैं, वे एक ही की भक्ति करते हैं तथा उनका एक ही प्रभु राम पर विश्वास है। जैसे सिर्फ़ स्वाति नक्षत्र के वर्षा जल को पीकर चातक (एक जाति का पक्षी) अपनी प्यास बुझाता है, ठीक वैसे ही सिर्फ़ रघुनाथ (राम) की भक्ति करते हुए तुलसीदास अपनी भक्ति रुपी प्यास बुझाते हैं। तुलसीदास की प्रभु राम के प्रति अनन्य साधारण भक्ति इस दोहे हे समझ आती है।
2. जग ते रह छत्तीस है, राम चरन छ: तीन।
तुलसी देखु विचार हिय, है यह मतौ प्रबीन॥२॥
भावार्थ : तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि मनुष्य को इस भौतिक जगत को भुलकर प्रभु राम के प्रति आस्था रखनी चाहिए। यह संसार नश्वर है मतलब नष्ट होने वाला है। इसलिए जग के साथ छत्तीस के आँकडे के बराबर (छत्तीस यह आँकड़ा दुश्मनी का प्रतीक है) व्यवहार करना चाहिए और राम के के साथ छ:तीन ( छ:तीन मतलब तिरसठ आँकडे के समान) होना चाहिए। तुसलीसाद जी का यह कुशल विचार/ मत है कि जो जग से अलग होकर प्रभु भक्ति में मन लगाएगा उसका जीवन धन्य होगा। भौतिक दुनिया नश्वर है इससे सिर्फ़ दु:ख और पीड़ा मिलेगी।
3. तुलसी संत सुअंब तरु, फ़ूलि फ़लहिं पर -हेत।
इतते ये पाहन हानत, उतते वे फ़ल देत॥३॥
भावार्थ : तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि संत का स्वभाव एक आम के पेड़ की तरह होने की बात करते हैं। जैसे आम का पेड़ जब फ़ल-फ़ूल जाता है मतलब उसे आम लगते हैं तब वह खुद आम न खाकर दूसरों को देता है। जितने आप उस पर पत्थर फ़ेकेंगे, उतने वह आपको आम देगा। ठीक वैसे ही एक संत का स्वभाव होता है। वह खुद के लिए न जीकर उस आम के पेड़ की तरह औरों के लिए जीता है। ऐसे ही मनुष्य का भी स्वभाव संत की तरह होना चाहिए जो दूसरों की मदद करने के लिए हमेशा तत्पर रहे। दूसरों की भलाई के लिए कार्य करें।
4. तुलसी काया खेत है, मनसा भयौ किसान।
पाप पुण्य दोउ बीज हैं, बुवै सौ लुनै निदान ॥४॥
भावार्थ : तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि मनुष्य का शरीर खेत के समान है और शरीर में वास करने वाला मन किसान। पाप और पुण्य दोनों बीज हैं जिसमें से जो हम जमीन में बोयेंगे ठीक वैसे ही हमें फ़ल तथा फ़ूल वापस मिलेगा। एक किसान अपने खेत में जो बीज बोता है उसके अनुसार ही उसे फ़ल मिलता है। अर्थात कवि का ऐसा मानना है कि मनुष्य अपने जीवन में अगर पाप करेगा तो उसके अनुसार उसे बुरा फ़ल और पुण्य करेगा तो उसके अनुसार अच्छा फ़ल मिलेगा। इसलिए हमें अगर जिंदगी सुख, आनंद, समाधान चाहिए तो पाप का त्याग करके पुण्य का काम करना चाहिए।
5. मधुर वचन तें जात मिटै, उत्तम जन अभिमान।
तनक सीत जलसों मिटै, जैसे दूध उफ़ान ॥५॥
भावार्थ : तुलसीदास जी इस दोहे के माद्यम से कहते हैं कि मधुर वचन (मधुर बोलने से) दूरी मिटेगी या दुश्मनी खत्म होगी। मधुर बोलने से अहंकारी मनुष्यों का अहंकार मिटेगा। वैसे ही थोड़े-से ठंड़े पानी से दूध में आयी उबल मिटेगी और दूध बरतन से उबलकर गीरने से बचेगा। अर्थात कवि कहना चाहते हैं कि मधुरता से अगर हम औरों के साथ बातें करते हैं तो भेदभाव या दुश्मनी मिटेगी। अभिमानियों का अहंकार मिटेगा। मधुर भाषा से आपसी प्रेम बढ़ेगा। जैसे ठंडा जल दूध में आई उफ़ान को शांत करता है और उसे गिरने से रोकता है।
6. तुलसी एहि संसार में, भाँति-भाँति के लोग।
सब सों हिल मिल बोलिए नदी नाव संयोग ॥६॥
भावार्थ : तुलसीदास जी इस दोहे के माध्यम से कहना चाहते हैं कि इस संसार में अलग-अलग प्रकार के लोग रहते हैं। हमें उन सब के साथ मिल-जुलकर बात करते रहना चाहिए। जैसे नदी और नाव का संयोग होने पर वे एक-दूसरे के करीब रहते हैं। अर्थात कवि का कहना है कि हमें दुनिया में सब के साथ अच्छा व्यवहार करके रहना चाहिए क्योंकि इस दुनिया में कब हमें किसकी जरुरत पड़ेगी यह पता नहीं। सब के साथ मिल-जुलकर रहने से हमारा जीवन सुखमय हो सकता है।
7. काम, क्रोध, मद, लोभकी, जौ लौं मन में खान।
तौं लौ पंडित मूरखौ, तुलसी एक समान ॥७॥
भावार्थ : तुलसीदास जी कहते हैं कि अगर किसी पंडित या ज्ञानी मनुष्य के मन में काम (वासना), क्रोध (गुस्सा), अहंकार (घमंड) या फ़ायदा इन दुर्गुणों की खान है तो उस मनुष्य और मूर्ख में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक समान हैं। अर्थात अगर आप ज्ञानी हैं लेकिन आपमें कुछ बुरे गुण भी समाये हैं तो आप ज्ञानी होकर भी मूर्ख हैं। ज्ञानी व्यक्ति में ज्ञान के साथ सद्गुण भी होने आवश्यक हैं। नहीं तो मूर्ख और पंडित (ज्ञानी) में कोई अंतर नहीं होगा।
8. आवत ही हर्षे नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेह॥८॥
भावार्थ : तुलसीदास जी कहते हैं कि अगर आप अपने परिचित के घर या उनके सामने जाते हैं और आपको देखकर उनके चेहरे पर हँसी (खुशी) और आँखों में स्नेह (प्रेम) देखने नहीं मिलता है। तो आपको उस व्यक्ति के घर या सामने नहीं जाना चाहिए। फ़िर वहाँ सोना या धन की बारिश ही क्यों ना हो जाए। अर्थात आप वहाँ मत जाइए जहाँ आपका मान-सम्मान न होता हो, आपके आने से किसी को आनंद न होता हो क्योंकि उनकी नज़रों में आपके प्रति कोई लगाव नहीं होता है।
9. तुलसी कबहुँ न त्यागिए, अपने कुल की रीति।
लायक ही सो कीजिए, ब्याह, बैर अरु प्रीति ॥९॥
भावार्थ : तुलसीदास जी कहते हैं कि हमें कभी-भी अपने कुल (घर) की रिति (परंपरा) नहीं त्यागनी चाहिए। हमें अपने लायक व्यक्ति के साथ ही ब्याह (शादी), बैर (दुश्मनी) और प्रेम करना चाहिए। अर्थात हमें अपने घर, परिवार तथा कुल की परंपरा या संस्कारों को कभी भी नहीं छोड़ना चाहिए। हमें कोई ऐसा काम नहीं करना चाहिए कि जिससे अपने कुल का नाम या मानसम्मान कम हो। हमें अपना जीवन उनके साथ ही बिताना चाहिए जो हमारे बराबर के हो। ऐसे में शादी करनी है- तो अपने बराबर व्यक्ति के साथ ही करनी है, इससे आपका जीवन सुखमय होगा। दुश्मनी भी करनी है तो अपने बराबर व्यक्ति के साथ ही करनी है वरना हमसे बड़े व्यक्ति से दुश्मनी करने पर भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है और प्रेम भी उसी के साथ करना है जो हमारे ऊपर प्रेम करें, हमें समझे तथा हमारा खयाल रखें।
10. बिना तेज के पुरुष की, अवशि अवज्ञा होय ।
आगि बुझे ज्यों राखको, आपु छुवै सब कोय ॥१०॥
भावार्थ : तुलसीदास जी कहते हैं कि एक पुरुष में कोई गुण होना है तो वह है तेज (चमक)। बिना चमक के आपका जीवन में बार-बार अपमान होगा। जैसे आग के बुझने पर जब उस आग की राख हो जाती है और उस राख को सभी छू लेते हैं। अर्थात एक पुरुष के पास अगर तेज नहीं है तो उसका समय-समय पर अनेकों द्वारा अपमान हो सकता है। उसको कोई महत्व नहीं देगा। वही आपके जीवन में आग के समान चमक है तो हर एक आपके पास आने से डरेगा या आपसे प्रभावित होगा। आग के बुझने के बाद राख को हर कोई छुकर उड़ाने का काम करता है वैसे हमें बिना तेज के हरकोई उड़ाने का काम नहीं करना चाहिए। आपसे सभी प्रभावित होने चाहिए तो आपके हर एक काम में आग के समान तेज होना जरुरी है।
प्रश्नोंत्तर :
I एक शब्द या वाक्यांश या वाक्य में उत्तर लिखिए :
१) तुलसीदास किस पर विश्वास करते हैं?
उत्तर- तुलसीदास अपने प्रभु राम पर विश्वास करते है।
२) तुलसीदास किसको आराध्य देव मानते हैं?
उत्तर- तुलसीदास राम को आराध्य देव मानते हैं।
३) संत का स्वभाव कैसे होता है?
उत्तर- संत का स्वभाव आम के पेड़ जैसे होता है।
४) तुलसीदास काया और मन की उपमा किससे देते हैं?
उत्तर- तुलसीदास काया और मन की उपमा खेत और बीज से देते हैं।
५) मधुर वचन से क्या मिटता है?
उत्तर- मधुर वचन से अभिमान मिटता है।
६) पंडित और मूर्ख एक समान कब लगते हैं?
उत्तर- पंडित और मूर्ख एक समान काम, क्रोध, मध और लोभ के कारण लगते हैं।
७) तुलसीदास कहाँ जाने के लिए मना करते हैं?
उत्तर- तुलसीदास जहाँ आपके जाने से हर्ष और स्नेह देखने नहीं मिलता वहाँ जाने के लिए मना करते हैं।
८) बिना तेज के पुरुष की अवस्था कैसी होती है?
उत्तर- बिना तेज के पुरुष की अवस्था बुझी आग की राख के समान होती है।
II निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लिखिए :
१) तुलसीदास की राम भक्ति का वर्णन कीजिए।
उत्तर- तुलसीदास राम की भक्ति करते थे। वे राम को अपना प्रभु मानते हैं। राम पर उनका भरोसा, उम्मीद, तथा उनकी शक्ति पर उनका विश्वास है। वे स्वाति नक्षत्र के वर्षा जल पर निर्भर रहने वाले चातक के समान राम के दर्शन की आस लगाए हुए रहते हैं। वे भौतिक जगत को त्यागकर राम के चरनों में जीवन बिताने का विचार रखते हैं।
२) तुलसीदास के अनुसार संत के स्वभाव का वर्णन कीजिए।
उत्तर- तुलसीदास के अनुसार संत का स्वभाव आम के पेड़ के समान होता है। आम का पेड़ जैसे हर मौसम में कठिनाइयों को सहते हुए दूसरों को मीठे-मीठे आम देता है। वह खुद पत्थर की मार सहकर दूसरों को अपने मीठे फ़लों का स्वाद चखाता है। ठीक वैसा ही संत का स्वभाव होता है। वह बिना किसी अपेक्षा के अपना ज्ञान मनुष्य तथा समाज की भलाई के लिए देता रहता है। वह अपने लिए न जीकर दूसरों के लिए जीने का काम करता है।
३) तुलसीदास ने मधुर वचन के महत्व का कैसे वर्णन किया है?
उत्तर- तुलसीदास ने मधुर वचन की सलाह दी है। मीठे वचनों से जातिय भेदभाव और दुश्मनी भाव खत्म हो जाता है। मनुष्य के मन का अभिमान या अहंकार नष्ट हो जाता है। जैसे थोड़ा-सा ठंड़ा पानी दूध की उफ़न को शांत करके उसे बरतन से बाहर गिरने से रोकता है, ठीक वैसे ही मधुर वचन से मन में उबलता क्रोध शांत होता है और लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव बढ़ता है।
४) तुलसीदास ने नदी और नाव का प्रयोग किस संदर्भ में किया है?
उत्तर- तुलसीदास नदी और नाव का प्रयोग करते हुए समझाना चाहते हैं कि यह संसार नदी के प्रवाह की तरह है जिसमें आपको बहते हुए नाव की तरह अपनी मंजिल तक पहुँचना है। आपको इस संसार में अलग-अलग विचार, जाति तथा धर्मों के लोग मिलेंगे, जिनके साथ आपको मिल-जुलकर रहना चाहिए। अगर नदी के विपरित दिशा में नाव जाएगी तो मंजिल तक नहीं पहुँचेगी। वैसे हि समाज के साथ मिल-जुलकर रहने से ही आप अपने गंतव्य स्थान तक पहुँचेंगे। समाज के लोगों के विरोध में जाने से आपका जीवन कठिनाइयों भरा होगा।
५) तुलसीदास कुल रीति के पालन करने के संबंध में क्या कहते हैं?
उत्तर- तुलसीदास कुल की रीति को न त्यागने की बात करते हैं। कुल के रीतिरिवाज़, संस्कार तथा मान-सम्मान को ठेस पहुँचने लायक हमें कोई भी काम नहीं करना चाहिए। कुल या घर-परिवार का नाम समाज में गिरे ऐसा कोई भी कृत्य हमें नहीं करना चाहिए। इसलिए हमें अपने कुल का खयाल रखते हुए शादी, दुश्मनी या प्रीति उन्हीं के साथ करनी चाहिए जो अपने बराबर के हो या लायक हो। अपने विचारों से भिन्नता रखने वालों से संबंध रखने पर दु:ख और पीड़ा का सामना कर पड़ सकता है।
III ससंदर्भ भाव स्पष्ट कीजिए :
१) तुलसी काया खेत है, मनसा भयौ किसान।
पाप-पुण्य दोउ बीज हैं, बुवै सौ लुनै निदान॥
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा कक्षा ११ वीं की पाठ्यपुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के मध्ययुगीन काव्य के ‘तुलसीदास के दोहे’ से लिया गया है।
संदर्भ : तुलसीदास मनुष्य को इस नीतिपरक दोहे के माध्यम से मनुष्य को सत्कर्म करने के लिए प्रेरित करते हैं।
भाव स्पष्टिकरण : तुलसीदास कहते हैं कि मनुष्य का शरीर एक खेत के समान है और शरीर में बसने वाला मन एक किसान के समान। एक किसान जैसे अपने खेत में अच्छी फ़सल आने के लिए अच्छे बीज को बोता है। ठीक वैसे ही मनुष्य को भी अपने मन से पाप की भावना को त्यागकर पुण्य की भावना से कार्य करना चाहिए। जिससे हमारा जीवन सुखमय हो। अच्छे कर्म करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। पुण्य की प्राप्ति से भगवान की कृपा सदैव रहती है।
२) काम, क्रोध, मद, लोभकी, जौ लौं मन में खान।
तौं लौ पंडित मूरखौ, तुलसी एक समान॥
प्रसंग : प्रस्तुत दोहा कक्षा ११ वीं की पाठ्यपुस्तक ‘साहित्य वैभव’ के मध्ययुगीन काव्य के ‘तुलसीदास के दोहे’ से लिया गया है।
संदर्भ : तुलसीदास मनुष्य को इस नीतिपरक दोहे के माध्यम से सदाचार तथा विनय गुणों को अंगीकृत करने की सलाह देते हैं।
भाव स्पष्टिकरण : तुलसीदास मनुष्य को वासना, अहंकार तथा लोभ के विचारों को मन से त्यागने की सलाह देते हैं। आप पंडित या ज्ञानी है लेकिन आपके अंदर वासना, अहंकार तथा लोभ की भावना है तो आप पंडित होकर भी मूर्ख हो। एक ज्ञानी या पंडित व्यक्ति वही हो सकता है जिसमें ये दुर्गुण नहीं होते हैं। इसलिए इन दुर्गुणों को हमें मन से निकाल बाहर फ़ेंकना है।